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Friday, September 16, 2022

17 सितम्बर को मुसलमान जश्न मनाएं या मातम?

marathwada mukti sangram


17 सितम्बर को मुसलमान जश्न मनाएं या मातम? 

 हा.सय्यद मोईनुद्दीन -

हर साल 17 सितम्बर को 15 अगस्त की तरह मराठवाडा के हर जिले, तहसील और गांव में मुक्ति संग्राम का जश्न मनाया जाता है इस वर्ष 75 वीं वर्ष गांठ के कारण 17 सितम्बर 2022 को मराठवाडा मुक्ति संग्राम का अमृत महोत्स्व मनाया जा रहा है। सरकारी तौर पर स्कूल, कॉलेजों और सरकारी दफ्तरों पर तिरंगा फहरा  कर सलामी दी जाती है। क्योंकि आज ही दिन के यानि 17 सितम्बर 1948 को हैदराबाद की तत्कालीन निज़ाम सरकार और उनके रज़ाकारों के ज़ुल्म व अत्याचार से मराठवडो की रियाया को मुक्ति मिली थी।

निजाम शाही:- ’निज़ाम’ का अर्थ है व्यवस्था, ’शाही’ का अर्थ है राज्य। हैदराबाद राज्य को निजाम शाही कहने की प्रथा है, लेकिन इस सल्तनत का आधिकारिक नाम ’आसफजाही सल्तनत’ था। आकार और संपत्ति के मामले में भारत की सबसे बड़ी इस सल्तनत को ’हैदराबाद राज्य’ के नाम से भी जाना जाता था। निजामशाही की स्थापना चिंकुलीखान मीर कमरुद्दीन सिद्दीकी ने की थी। वे मुगल वंश और समरकंद के तातार थे। 

1773 में, उन्हें मुगलों द्वारा दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया गया था। 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद, उसने 1724 में हैदराबाद में अपनी सल्तनत की स्थापना ’आसिफजाह’ के नाम से की।

15 अगस्त 1947 को जब भारत देश स्वतंत्र हुआ तो इसी देशमें पुरातन संस्थानों के राजा महाराजाओं की सत्ता ग्वालियर, जोधपुर, जूनाग, कश्मीर और हैदराबाद  सहित लग भाग 600 स्थानों पर थी, तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने उन संस्थानिकों को देश  के लोकतंत्र शासन में सम्मिलित होने का आवाहन किया तो हैदराबाद संस्थान को छोकर सभी  संस्थानिकों ने भारत लोकतंत्र शासन को मान्य करते हुए अपनी स्वीकृति दे दी, पर हैदराबाद  संस्थान के शासक नवाब मीर उस्मान अली खां निजाम ने अपनी हटधर्मी के सबब भारतीय लोकतंत्र में समाविष्ट होने से इंकार कर दिया, जिस पर गृह मंत्री सरदार पटेल ने 13   सितंबर 1948 को भारतीय सेना को मेजर जनरल जे एन चौधरी के नेतृत्व में हैदराबाद में घुसा दिया,108 घंटों तक चली इस कार्रवाई में सरकारी आंकों के अनुसार 1,373 रज़ाकार मारे गए. हैदराबाद  स्टेट के 807 जवानों की मौत हुई. भारतीय सेना ने भी अपने 66 जवान खोए जबकि 97 जवान  घायल हुए थे। 

भारत में विलय से इनकार क्यों? :- उस समय इम्पेरियल बैंक ऑफ इंग्लैंड ब्रिटेन का रिजर्व बैंक था। उसके भांडवल का एक बा  हिस्सा निज़ाम उस्मान अली पाशा का था। 1942 में चलेजाव आंदोलन के बाद  मीर उस्मान अली  पाशा ने महसूस किया कि अंग्रेज लंबे समय तक भारत पर शासन नहीं कर पाएंगे। इसके बाद  उन्होंने इम्पेरियल बैंक ऑफ इंग्लैंड को एक नोटिस जारी कर अंग्रेजों पर अपनी पूंजी वापस करने  का दबाव बनाया। जैसे ही ब्रिटिश लोगों ने इस बारे में सुना  वे अपनी जमा राशि वापस मांगने  लगे। दिवालिया होने के डर से  इंग्लैंड की रानी खुद हैदराबाद आई और मीर उस्मान अली पाशा  को आश्वासन दिया कि उसकी रियासत और उसका भांडवल दोनों सुरक्षित रहेंगे। इस आश्वासन  कि वजाह से निज़ाम ने भारत के 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र होने से पहले  जून 1947 को भारत  में विलय न होने की आधिकारिक तौर पर घोषणा कर दी,  इतना ही नहीं उन्होंने बॅ. जिन्ना से  मदद की गुहार भी लगाई,  जिसे बॅ. जिन्ना ने ठुकरा दिया। इसके अलावा निज़ाम ने पुर्तगाल से  संपर्क करके अपने जनरल सैयद अहमद हबीब अल अदरूस को गोवा के बंदरगाह से हथियार  लाने के लिए यूरोप भेजा था लेकिन चूंकि हैदराबाद राज्य एक स्वतंत्र राष्ट्र नहीं था, इसलिए वे  हथियार प्राप्त करने में विफल रहे। निज़ाम ने राष्ट्रमंडल में सदस्यता की मांग भी की लेकिन इटली  की सरकार ने इससे इनकार किया। इन सबके बावजूद निजाम के आंदोलन जारी रहे। उन्होंने  इंग्लैंड में हैदराबाद राज्य के प्रतिनिधि मीर नवाज जंग के माध्यम से ऑस्ट्रेलिया में एक हथियार  डीलर सिडनी कॉटन से संपर्क किया और हत्यारों की मांग की जिस पर वो राज़ी हो गया। गृह मंत्री  सरदार पटेल ने यह सूचना मिलने के बाद कि जहाज हथियार लेकर हैदराबाद जा रहा है, जहाज  के भारत न पहुंचने की व्यवस्था कर डाली। अंत में  कश्मीर की तरह  निज़ाम ने लॉर्ड माउंटबेटन  को विदेश नीति, रक्षा और संचार विभागों को छोकर हमें स्वायत्तता देने के लिए मनाने की  कोशिश की। इसमें कोई रास्ता निकल सकता था, हैदराबाद रियासत का भारत में एक समझौता  और शांतिपूर्ण विलय हो सकता था लेकिन कासिम रिजवी तैयार नहीं थे। इसलिए यह शांति  वार्ता भी सफल नहीं हो सकी। कुल मिलाकर  ये घटनाएँ 1947 से 1948 तक एक वर्ष की अवधि  के दौरान हुईं्। वहीं रजाकर भी निजाम के शासन को बचाने के लिए आक्रामक हो गए्। उन्होंने  कई जगहों पर हिंसा की वारदात को अंजाम दिया। गंगापुर रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में आग लगा दी  गई और यात्रियों को नीचे उतारकर पीटा गया। इससे लोगों में तीव्र क्रोध की भावना पैदा हुई और  भारत सरकार पर दबाव ब गया।



हैदराबाद को खालसा करने के कारण:- 

1)पहला कारण:- मूल रूप से यह है कि बीसवीं सदी में पूरी दुनिया में लोकतंत्र की हवा चल रही थी। निजामों का शासन चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, लोग लोकतंत्र और अपने भविष्य को आकार देने की स्वतंत्रता चाहते थे। चूंकि हैदराबाद रियासत में कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों पार्टियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, कांग्रेस विचारधारा के लोगों ने आर्य समाज आंदोलन के माध्यम से ’मराठवाड़ा मुक्ति संग्राम’ नामक एक आंदोलन शुरू किया। निजामशाही के कुछ मुस्लिम समर्थकों ने एमआईएम के जरिए निजामशाही को बचाने की कोशिश की।

2)दूसरा कारण:- रोहिल्या पठानों के सूदखोरी का कारोबार्। मूल रूप से रियासत की रक्षा के लिए अफगानिस्तान से रोहिल्या पठानों को विशेष रूप से बुलाया गया था, लेकिन यहां आते ही उन्होंने सूदखोरी का धंधा शुरू कर दिया। रंगदारी में उनका हाथकंडा था इसलिए, हिंदू और मुस्लिम दोनों इसमें पिसे जा रहे थे। रोहिलयों द्वारा वसूली के लिए किए गए अत्याचारों के कारण आम लोग अधिक आक्रामक हो गए्। यह भी निजामशाही के अंत का एक कारण बना।

3)तीसरा कारण:- कम्युनिस्ट आंदोलन है, उस दौरान रूस गए हुए कट्टरपंथी कम्युनिस्ट कवि मकदूम मोहिउद्दीन के नेतृत्व में निजाम के ’बुर्जुआ’ यानी सामंती सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए एक कम्युनिस्ट आंदोलन भी शुरू किया गया था, इसमें हिंदू, मुस्लिम, दलित शामिल थे, खासकर खेतिहर मजदूरों की इसमें बी संख्याथी, निजामशाही के पतन का यह भी एक कारण था।

4)चौथा कारण:- रजाकार आंदोलन, ’रजा’ का अर्थ है सहमति और ’कर’ का अर्थ है काम, निश्चय ही वे स्वयंसेवक जिन्होंने स्वेच्छा से निजामशाही को बचाने का प्रयास किया उन्हें रजाकार कहा जाता था, हालाँकि इसमें बड़ी संख्या में मुसलमान थे, हिंदू और दलित कम संख्या में ही सही लेकिन इसमें वो भी शामिल थे।यह मिलिशिया निजाम के शासन को बनाए रखने पर जोर दे रहे थे। मूल रूप से इस रजाकार आंदोलन की आयु एक से डेढ़ वर्ष थी। आज भी कुछ बुजुर्गों का कहना है कि उनके मामले में अत्याचार के आरोप बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए गए हैं. रजाकारों के मुखिया मूल रूप से लातूर के रहने वाले और हैदराबाद में बसे, ऍड. कासिम रिज़वी थे। 

मराठवाड़ा मुक्ति संग्राम:-  मराठवाड़ा मुक्ति संग्राम का नेतृत्व स्वामी रामानंद तीर्थ ने किया था, इस मुक्ति संग्राम में शामिल अन्य प्रमुख व्यक्ति थे गोविंदभाई श्रॉफ, अनंत भालेराव, शंकरराव चव्हाण, पी.वी. नरसिम्हाराव, विजयेंद्र काबरा, फूलचंद गांधी, मुल्ला अब्दुल कय्यूम खान, सैयद अखिल (संपादक दास्ताने हाज़िर)।

ऑपरेशन पोलो:- सरदार पटेल ने जनरल करियप्पा को बुलवाकर हैदराबाद के खालसा की योजना तैयार करने का आदेश दिया। 13 सितंबर 1948 को  मेजर जनरल जयंत-नाथ चौधरी के नेतृत्व में भारतीय सेना की एक टुकड़ी सोलापुर से हैदराबाद के लिए रवाना हुई और 17 सितंबर को सुबह 9 बजे बेगमपेट हवाई अड्डे पर, निज़ाम मीर उस्मान अली पाशा ने अपने सेना प्रमुख सैयद हबीब एड्रस के साथ आत्मसमर्पण कर दिया।

ये है 17 सितम्बर 1948 का मुख़्तसर इतिहास, जिसे बे ही जोश व खरोश के साथ सुनाया जाता है, अच्छा है सुनना और सुनाना भी चाहिए, जश्न भी मनाना चाहिए यहाँ तक के उन फौजियों और मराठवाडे के स्वतंत्रा सेनानियों का सम्मान भी होना चाहिए जिन्होंने रज़ाकारों और हैदराबाद  स्टेट के जवानों को खदे कर मराठवो की रियाया और यहाँ की ज़मीन को उनके ज़ुल्म व सितम से पाक किया। 17 सितम्बर 1948 का ये इतिहास बिलकुल सच है इसमें कोई शक नहीं लेकिन ये इतिहास पूरा नहीं अधूरा है। ये मुक्ति संग्राम का एक पहलू है जिसे दुनिया के सामने लाया जाता है, 17 सितम्बर 1948 का दूसरा पहलू,  दूसरा सच और इतिहास का दूसरा हिस्सा जो बहुत ही भयानक, खतरनाक और खून से लतपत दर्द भरा है उसे क्यों छुपाया जाता है ?

17 सितम्बर 1948 यानि मराठवाा मुक्ति संग्राम अमृत महोत्स्व के औसर पर तो कम से कम इसका पूरा इतिहास और दूसरा पहलू नई पीी तक पहुंचाना हम हमारा कर्तव्ये और फ़र्ज़ समझते हैं्। पत्रकारिता के नाम पर कलंक हैं वो लोग जो हक़ीक़त जानने के बावजूद उस पर पर्दा डालते हैं और ज़ात -पात व धर्म की पत्रकारिता करते हैं्।17 सितम्बर 1948 यानि मराठवाडा मुक्ति संग्राम का दूसरा पहलू:- 14 सितंबर 1948 हैदराबाद संस्थान के चप्पे-चप्पे में केंद्रीय दल तैनात  किया गया, कुछ फौजियों और स्वतंत्रा सेनानियों ने ईमानदारी से अपना फ़र्ज़ निभाया जिसके नतीजे में सरकारी आंकों के अनुसार 1,373 रज़ाकार और हैदराबाद स्टेट के 807 जवान मारे गए, वहीं भारतीय सेना ने भी अपने 66 जवान खोए्। लेकिन कुछ हिंदुत्ववादी कट्ठर पंथ या मुसलमानों से नफरत करने वाले फौजियों और मराठवाडे के स्वंय घोषित स्वतंत्रा सेनानियों ने और स्थानीय पुलिस और स्थानीय हिन्दुओं ने रजाकारों के नाम पर  हजारों मुसलमानों पर अत्याचार करना शुरू किया, यह खूनी सिलसिला 13 से 17 सितंबर  1948 तक चलता रहा, इन 5 दिनों में  हजारों मुसलमानों को काटकर शहरों और गांवों के अतराफ़  बावली कुंवों को भर दिया गया, उनकी संपत्तियों को लूटा गया,  औरतों और नौजवान लकियों का बलात्कार किया गया, आज भी कई बूे बुजुर्गों के दिलों में पुलिस एक्शन का भय  बसा हुआ है,  यह इतना तीव्र था कि उस समय उस्मानाबाद जिले को मुस्लिम विधवाओं के जिले के रूप में  जाना जाता था। क्या ये सच्चाई कोई बताता है? हैदराबाद स्टेट पर जिसकी हुकूमत थी उसका तो  बाल भी बांका नहीं हुआ? निजामे हैदराबाद तो जेल भी नहीं गए ।सरदार पटेल और उनकी भेजी  हुई फौज ने निज़ाम के खिलाफ कोई सादा तकरार तक नहीं की, यदि निजामे हैदराबाद से कोई  टकराव नहीं था तो फिर मुस्लिम जनता का क्या कसूर था? क्या  पुलिस एक्शन के बिना हैदराबाद  पर कब्जा नहीं हो सकता था? केंद्र सरकार यदि निजाम को गिरफ्तार नहीं करना चाहती थी,  मारना भी नहीं चाहती थी,  उनकी दौलत और शाही किताबत भी वापस नहीं लेना चाहती थी, तो फिर वह कौन सी बात थी जिससे इतना बा एक्शन प्लान बनाया गया था? क्या इस हादसे  को टाला नहीं जा सकता था? तो क्या सिर्फ मुसलमानों के क़त्ले आम के लिए यह साज़िश बनाई  गई थी? अगर यह मुहिम निजाम सरकार के खिलाफ थी तो निजाम सरकार के सदस्य अथवा  फौजी क्यों नहीं मारे गए? उनके किसी अधिकारियों पर क्यों हमले नहीं हुए? 17 सितम्बर 1948 यानि मराठवाा मुक्ति संग्राम के पीछे एक खूनी इतिहास छुपा हुआ है, इसलिए इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, क्योंकि हर कोई समझता है कि अगर अन्याय और अत्याचारों को प्रचारित नहीं किया गया है, तो अत्याचार नहीं हुए हैं्। खास बात यह है कि अतीत में सताए गए लोगों की अगली पीढ़ी सब कुछ भूल जाती है, जिसका सबसे अच्छा उदाहरण है ’13 से 17 सितंबर 1948 के बीच हैदराबाद सैन्य कार्रवाई’  इस दौरान पंडित जवाहरलाल नेहरू खुद मराठवाड़ा के दौरे पर थे। उन्होंने स्वयं स्थिति देखी थी मुसलमानों के क़त्ले आम और लूट पाट से व्यथित होकर ही उन्होंने पंडित सुंदरलाल आयोग का गठन किया था। 65 साल बाद 2013 में जारी आयोग की रिपोर्ट में उस समय के दौरान मुसलमानों के खिलाफ किए गए अकथनीय अत्याचारों को स्वीकार किया गया था। 65 साल बाद 2013 में  जारी आयोग की रिपोर्ट में उस समय के दौरान मुसलमानों के खिलाफ किए गए अकथनीय अत्याचारों को स्वीकार किया गया है। जिसमें सुंदरलाल की टीम की रिपोर्ट के अनुसार 40000 मुसलमानों का क़त्लेआम किया गया था और अरबों रुपये की संपत्ति लूटी व जला दी गई थी। आयोग ने पाया था कि उस्मानाबाद में मुसलमानों की संख्या उस समय 10,000 थी, नरसंहार के बाद 3,000 रह गई थी, गुलबर्गा में 5,000 से 8,000 और नांदे में  2,000 से 4,000 मुसलमानों का कत्लेआम हुवा था।सुंदरलाल की टीम ने मराठवाडो के दर्जनों गांवों का दौरा किया, उन मुसलमानों के वृत्तांतों का भी सावधानीपूर्वक वर्णन किया जो भयावह हिंसा से बच गए थे। कमेटी कहती है हमारे पास इस आशय के बिल्कुल अचूक सबूत थे कि जिनमें भारतीय सेना, स्थानीय पुलिस और स्थानीय लोगों ने सिर्फ लूटपाट में भाग नहीं लिया बल्कि अन्य अपराध में भी शामिल थे। सैनिकों ने कुछ मामलों में हिंदू भीड़ को मुस्लिम दुकानों और घरों को लूटने के लिए मजबूर किया। टीम ने बताया कि जहां मुस्लिम ग्रामीणों को भारतीय सेना ने निरस्त्र कर दिया था, वहीं हिंदुओं को अक्सर उनके हथियारों के साथ छोड़ दिया जाता था। भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा का नेतृत्व अक्सर हिंदू अर्धसैनिक समूहों द्वारा किया जाता था।  अन्य मामलों में, यह कहा गया कि, भारतीय सैनिकों ने खुद कसाई का रोल निभाया कई स्थानों पर सशस्त्र बलों के सदस्यों ने गांवों और कस्बों से मुस्लिम वयस्क पुरुषों को बाहर निकाला और उन्हें मार डाला।  हालांकि, जांच दल ने यह भी बताया कि कई अन्य मामलों में भारतीय सेना ने अच्छा व्यवहार किया और मुसलमानों की रक्षा भी की।  कई जगहों पर हमें अभी भी सड़ रही लाशों से भरे कुएं दिखाए गए थे। ऐसे ही एक में हमने 11 शवों की गिनती की, जिसमें एक महिला भी शामिल थी एक छोटे बच्चे के स्तन से चिपके हुए्। हमने खाइयों में लाशों के अवशेष पड़े देखे। कई जगहों पर शव जले हुए थे उनकी हड्डियाँ और खोपड़ियाँ अभी भी वहाँ पड़ी हैं्। पाठक सुन्दर लाल कमेटी की रिपोर्ट से 17 सितंबर 1948 के नरसंहार की तीव्रता का अंदाजा लगा सकते हैं. मुझे यकीन है कि आज की पीढ़ी इस इतिहास को बिल्कुल भी नहीं जानती है। तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ पटेल ने रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया क्योंकि रिपोर्ट में उल्लिखित दिल को दहला देने वाली घटनाएं कानून-व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़ा करेंगी।सुंदरलाल कमेटी की रिपोर्ट  नई दिल्ली में नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय में देखने के लिए उपलब्ध है। 17 सितंबर 1948 को मराठवाा के जिन मुसलमानों के पूर्वजों की जान, माल और इज़्ज़त आबरू को लूटा गया हो, जिसके गवाह सिर्फ आसमान और ज़मीन ही नहीं तत्कालीन सरकार की सुन्दर लाल कमेटी की रिपोर्ट भी हो तो वहां के मुसलमान 17 सितंबर को जश्न मनाएं या मातम?दरअसल निजामशाही का विलय शांतिपूर्ण होना चाहिए था, कांग्रेस ऐसा कर भी सकती थी लेकिन एक ओर कासिम रिज़वी की हठधर्मी तो दूसरी ओर तत्कालीन कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मुस्लिम शासकों और रज़ाकारों को सबक सिखाने की ज़िद ने उस्मानाबाद, लातूर, नांदेड़, बीड, परभणी, जालना और आंध्र प्रदेश के पास  रहने वाले लाखों मुसलमानों को पलायन करने पर मजबूर किया, हजारों मुसलमानों की हत्याऐं हुईं, अरबों की संपत्ती जलाई गई, सैकों महिलाओं और नौजवान लकियों के बलात्कार हुए्। ये जब भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने, लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पायी। 


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